काव्यशास्त्र का अर्थ, महत्व, नामकरण एवं विकास

काव्यशास्त्र का अर्थ, महत्व, नामकरण एवं विकास

काव्यशास्त्र का अर्थ, महत्व, नामकरण एवं विकास  : भारत में काव्यशास्त्र की अपनी सुदीर्घ परम्परा रही है तथा इसमें विविध शास्त्रीय सिद्धान्तों, कवि – शिक्षाओं एवं
साहित्यिक मूल्यों-मानकों का विस्तृत समावेश हुआ है । संस्कृत – परम्परा में प्रारम्भ से ही काव्य और शास्त्र रूप में समस्त वाङ्मय दो अंगों में विभाजित रहा है, इस कारण काव्य के शास्त्रीय विवेचन के लिए काव्यशास्त्र का ज्ञान अपेक्षित माना गया है।

काव्यशास्त्र का अर्थ, महत्व, नामकरण एवं विकास

‘काव्यशास्त्र’ का अर्थ एवं महत्त्व :

काव्यशास्त्र समस्त वाङ्मय के नानाविध रूपों और विधाओं के सैद्धान्तिक विवेचन, व्यवस्था-सम्बन्धी निर्देशन, काव्य-तत्त्वों का निर्धारण एवं मूल्यांकन से सम्बन्धित शास्त्रीय विधा है । इसे काव्य-रचना करने वाले कवियों को मार्गदर्शन करने वाला शास्त्र अथवा रचनाओं के गुणावगुण का परीक्षण करने वाला सिद्धान्त – पक्ष भी माना जा सकता है। यह निर्विवाद सत्य है कि पहले साहित्य-रचना होती है, फिर उसकी समीक्षा की जाती है । इस कारण काव्य-शास्त्र का उद्भव साहित्य-रचना के अनन्तर ही हुआ है । परन्तु इसके द्वारा सिद्धान्तों की शिक्षा दी जाती हैं, इस कारण यह भावी कवियों-लेखकों के लिए मानदण्ड भी स्थापित करता है और उनका मार्गदर्शन करता है । इस दृष्टि से प्रत्येक काल में तथा प्रत्येक रचनाकार के लिए काव्यशास्त्र का विशेष महत्त्व है।

‘काव्यशास्त्र’ का अर्थ है, काव्य का शास्त्र । अर्थात् काव्य या साहित्य के शास्त्रीय विवेचन के लिए सिद्धान्तों-नियमों अथवा काव्य-तत्त्वों का निर्धारण करने वाला शास्त्र ही
‘काव्यशास्त्र’ कहलाता है। यह ‘काव्य’ और ‘शास्त्र’ इन दो शब्दों से निर्मित है। इसे काव्य का शास्त्र अथवा समग्र साहित्यिक विधाओं का शास्त्र मानने से काव्यशास्त्र या साहित्यशास्त्र कहा जाता है। काव्यशास्त्र के अभाव में साहित्य की समीक्षा नहीं हो सकती और बिना समीक्षा के साहित्य या काव्य का उत्कर्ष भी अज्ञात ही रहता है।
इसी बात को ध्यान में रखकर राजशेखर का कथन है-

“इह हि वाङ्मयमुभयथा शास्त्रं काव्यं च । शास्त्रपूर्वकत्त्वात् काव्यं पूर्वं शास्त्रेष्वभिनिविशेत। नह्य प्रवर्तितप्रदीपास्ते । तत्त्वार्थसार्थमध्यक्षयन्ति।”

‘काव्यशास्त्र’ नामकरण ‘:

काव्यशास्त्र’ का प्राचीनतम नाम ‘अलंकार शास्त्र’ है । उस समय काव्य का सौन्दर्य-तत्त्व अलंकार प्रमुखतया विवेच्य रहा। इस कारण आचार्यों ने अपनी रचनाओं में काव्य- शोभाकारक तत्त्वों का विस्तृत विवेचन किया। आचार्य भामह, दण्डी, रुद्रट, वामन आदि आचार्यों ने इसीलिए अपने काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों को ‘काव्यालंकार’ नाम दिया है। राजशेखर ने काव्यशास्त्र के लिए ‘साहित्य विद्या’ नाम दिया है, परन्तु यह नाम प्रचलित नहीं हो सका। वात्स्यायन ने इसे ‘क्रियाकल्प’ (क्रिया = काव्यग्रन्थ तथा कल्प =
विधान) नाम दिया है, परन्तु वह भी प्रचलित नहीं हो सका। आचार्य विश्वनाथ एवं आचार्य रुथ्यक ने ‘साहित्य मीमांसा’ नामकरण कर काव्यशास्त्र लिए ‘साहित्य’ का प्रयोग किया है। वैसे समस्त वाङ्मय को साहित्य कहा जाता है और साहित्य के सिद्धान्तों, लक्षणों, स्वरूप परिचायक तत्त्वों का विवेचन होने से काव्यशास्त्र के लिए ‘साहित्यशास्त्र’ नाम सामान्य रूप से प्रचलित हुआ है। वर्तमान में इसके लिए ‘काव्यशास्त्र’, ‘साहित्यशास्त्र’, ‘आलोचनाशास्त्र’, ‘काव्यालोचन’, ‘साहित्यालोचन’ आदि शब्द प्रचलित हैं, फिर भी ‘काव्यशास्त्र’ तथा ‘साहित्यशास्त्र’ नाम ही अधिक प्रयुक्त हो रहे हैं। अंग्रेजी के साम्य पर अधिकतर लोग ‘काव्यशास्त्र’ कहना पसन्द करते हैं, परन्तु संस्कृत के अनुसरण पर ‘साहित्यशास्त्र’ नामकरण अधिक ग्राह्य प्रतीत होता है ।

भारतीय काव्यशास्त्र का विकास :

भारतीय काव्यशास्त्र का विकास विभिन्न कालों में हुआ है। इसके इतिहास को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है- (1) प्रवर्तन काल, (2) प्रतिपादन काल, (3) संग्रह-
समन्वय काल और (4) भाषा काल । यहाँ इन सभी कालों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है-

1. प्रवर्तन काल –

ईसा पूर्व अज्ञात समय से ईस्वी पाँचवीं शती तक भारतीय काव्यशास्त्र का प्रवर्तनकाल माना जाता है ! यद्यपि आचार्य भरत से पूर्व की कोई रचना उपलब्ध नहीं है, परन्तु ‘नाट्यशास्त्र’ के उद्धरणों तथा अन्य ग्रन्थों की वृत्तियों से पूर्ववर्ती आचायों के नामों की परम्परा ज्ञात होती है, इस दृष्टि से कुछ नाम इस प्रकार हैं-सदाशिव, ब्रह्मा, कश्यप, मतंग, काहल, नारद, तुम्बरु, आंजनेय, नन्दिकेश्वर आदि । आदिकवि वाल्मीकि और महाकवि भास एवं कालिदास के कतिपय वाक्यों से भी काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों पर प्रकाश पड़ता है। ‘नाट्यशास्त्र’ के अतिरिक्त राजशेखर की ‘काव्यमीमांसा’ में तथा शारदातनय के ‘भावप्रकाशन’ में भी काव्यशास्त्र की समृद्ध परम्परा का उल्लेख मिलता है। परन्तु सम्प्रति केवल ‘नाट्यशास्त्र’ ही प्रामाणिक ग्रन्थ उपलब्ध है। इस कारण भरत मुनि को ही इस काल का प्रवर्तक आचार्य माना जाता है।

2. प्रतिपादन काल –

छठी शती से ग्यारहवीं शती तक का समय भारतीय काव्यशास्त्र के विकास का प्रौढ़ काल माना जाता है। इस काल में आचार्य भामह, दण्डी, उद्भट, वामन, रुद्रट, आनन्दवर्धन, कुन्तक, महिमभट्ट, क्षेमेन्द्र, अभिनवगुप्त और आचार्य मम्मट ने काव्यशास्त्र के विविध सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। इन प्रबुद्ध आचार्यों के अतिरिक्त भट्ट लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक, धनञ्जय, धनिक, भोजराज आदि प्रतिभासम्पन्न आचार्यों ने इस काल में पूर्ववर्ती आचार्यों के सिद्धान्तों का पाण्डित्यपूर्ण खण्डन-मण्डन किया। इसी काल में भारतीय काव्यशास्त्र के इन पाँच प्रमुख सम्प्रदायों का प्रचलन हुआ— अलंकार सम्प्रदाय, रीति सम्प्रदाय, ध्वनि सम्प्रदाय, वक्रोक्ति सम्प्रदाय एवं औचित्य सम्प्रदाय। इन पाँच सम्प्रदायों में से कुछ सम्प्रदायों के बीज – तत्त्व आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र में उपलब्ध हैं। इस काव्यशास्त्रीय सम्प्रदायों के अतिरिक्त इस काल में अनेक व्याख्याकार भी हुए हैं। भरत के पूर्वोक्त रससूत्र की नवीन व्याख्याएँ की गईं।

3. संग्रह – समन्वय काल –

ग्यारहवीं शती के अनन्तर अनेक ऐसे आचार्य हुए, जिन्होंने पूर्व में प्रचलित सिद्धान्तों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। इस काल के विद्वानों में रुय्यक, हेमचन्द्र, रामचन्द्र – गुणचन्द्र, जयदेव, विश्वनाथ, भानुदत्त, पण्डितराज जगन्नाथ आदि की गणना की जाती है। इन आचार्यों ने पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का पल्लवन किया तथा अध्ययन-अध्यापन की सुविधा की दृष्टि से उन सभी सिद्धान्तों का वर्गीकरण, संग्रह एवं समन्वय उपस्थित किया। साथ ही उन्होंने अपने
मौलिक चिन्तन को भी व्यक्त किया। इस काल की अन्तिम सीमा सत्रहवीं शती मानी जातीं है ।

4. भाषा काल –

इस काल में अर्थात् सत्रहवीं शती से लेकर अब तक काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों की चर्चा हिन्दी, बंगाली, मराठी आदि विविध भाषाओं में होने लगी और उन-उन भाषाओं के आचार्यों ने लक्षण- उदाहरण ग्रन्थ रचकर उस परम्परा को आगे बढ़ाया।

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